शुक्रवार, 14 मई 2010

वीरता व बलिदान के प्रतीक गुरु

धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए गुरु गोविन्द सिंह ने अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। इतिहास में ऐसी वीरता और बलिदान कम ही देखने को मिलता है। इसके बावजूद इतिहासकारों ने इस महान शख्सियत को वह स्थान नहीं दिया जिसके वे हकदार हैं। इतिहासकार लिखते हैं कि गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पिता का बदला लेने के लिए तलवार उठाई। जिस बालक ने स्वयं अपने पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित किया हो, क्या संभव है कि वह स्वयं लडने के लिए प्रेरित होगा?
गुरु गोविन्द सिंह को किसी से वैर नहीं था, उनके सामने तो पहाडी राजाओं की ईष्र्या पहाड जैसी ऊंची थी, तो दूसरी ओर औरंगजेबकी धार्मिक कट्टरता की आंधी लोगों के अस्तित्व को लीलरही थी। ऐसे समय में गुरु गोविन्द सिंह ने समाज को एक नया दर्शन दिया-आध्यात्मिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए तलवार धारण करना। जफरनामा में स्वयं गुरु गोविन्द सिंह लिखते हैं- जब सारे साधन निष्फल हो जायें, तब तलवार ग्रहण करना न्यायोचित है। धर्म एवं समाज की रक्षा हेतु ही गुरु गोविन्द सिंह ने 1699ई.में खालसा पंथ की स्थापना की। खालसा यानिखालिस (शुद्ध), जो मन, वचन एवं कर्म से शुद्ध हो और समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो। उन्होंने सभी जातियों के वर्ग-विभेद को समाप्त कर न सिर्फ समानता स्थापित की बल्कि उनमें आत्म-सम्मान और प्रतिष्ठा की भावना भी पैदा की। उन्होंने स्पष्ट मत व्यक्त किया-मानस की जात सभैएक है।
गुरु नानक देव जी ने जहां विनम्रता और समर्पण पर जोर दिया था, वहीं गुरु गोविन्द सिंह ने आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता का संदेश दिया। समानता के आधार पर स्थापित खालसा पंथ में वे सिख थे, जिन्होंने किसी युद्ध कला का कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं लिया था। सिखों में यदि कुछ था तो समाज एवं धर्म के लिए स्वयं को बलिदान करने का जज्बा।
गुरु गोविन्द सिंह का एक और उदाहरण उनके व्यक्तित्व को अनूठा साबित करता है-पांच प्यारे बनाकर उन्हें गुरु का दर्जा देकर स्वयं उनके शिष्य बन जाते हैं और कहते हैं-जहां पांच सिख इकट्ठे होंगे, वहीं मैं निवास करूंगा। खालसा मेरोरूप है खास, खालसा में हो करो निवास। सेनानायक के रूप में पहाडी राजाओं एवं मुगलों से कई बार संघर्ष किया। युद्ध के मैदान में उनकी उपस्थिति मात्र से सैनिकों में उत्साह एवं स्फूर्ति पैदा हो जाती थी। चण्डी चरित में लिखा सवैया शूरवीरों का मंत्र बन गया था-देह शिवा वर मोहिएहैभुभकरमनतेकबहूंन टरौ,न डरो अरि सो जब जाइलरोनिसचैकर अपनी जीत करो।
जहां शिवाजी राजशक्ति के शानदार प्रतीक हैं, वहीं गुरु गोविन्द सिंह एक संत और सिपाही के रूप में दिखाई देते हैं। क्योंकि गुरु गोविन्द सिंह को न तो सत्ता चाहिए और न ही सत्ता सुख। उनका विषय तो शान्ति एवं समाज कल्याण था। अपने माता-पिता, पुत्रों और हजारों सिखों के प्राणों की आहुति देने के बाद भी वह औरंगजेबको फारसी में लिखे अपने पत्र जफरनामा में लिखते हैं- औररंगजेब तुझे प्रभु को पहचानना चाहिए तथा प्रजा को दु:खी नहीं करना चाहिए। कुरान की कसम खाकर तूने कहा था कि मैं सुलह रखूंगा, लडाई नहीं करूंगा, यह कसम तुम्हारे सिर पर भार है। तू अब उसे पूरा कर। गुरु गोविंद सिंह एक आध्यात्मिक गुरु के अतिरिक्त एक महान विद्वान भी थे। उन्होंने पाउन्टासाहिब के अपने दरबार में 52कवियों को नियुक्त किया था। जफरनामा एवं विचित्र नाटक गुरु गोविन्द सिंह की महत्वपूर्ण कृतियां हैं। वह स्वयं सैनिक एवं संत थे। इसी भावनाओं का पोषण उन्होंने अपने सिखों में भी किया। सिखों के बीच गुरु गद्दी को लेकर कोई विवाद न हो इसके लिए उन्होंने गुरुग्रन्थ साहिब को गुरु का दर्जा दिया। इसका श्रेय भी प्रभु को देते हुए कहते हैं-आज्ञा भई अकाल की तभी चलाइयोपंथ, सब सिक्खनको हुकम है गुरू मानियहुग्रंथ।
गुरुनानक की दसवीं जोत गुरु गोविंद सिंह अपने जीवन का सारा श्रेय प्रभु को देते हुए कहते है-मैं हूं परम पुरखको दासा, देखन आयोजगत तमाशा। ऐसी शख्सियत को शत-शत नमन।

सतत् यायावर स्वामी रामतीर्थ

पंजाब के मुरलीवालाग्राम के निवासी पण्डित हीरानंदके परिवार में सन् 1873ई.में दीवाली के दिन एक पुत्ररत्नकी प्राप्ति होती है। नाम रखा जाता है तीरथराम।शिशु-जन्म के कुछ दिन बाद माता का देहान्त। शिशु के पालन-पोषण का भार उसकी बुआ पर। बालक तीरथशैशवकाल से ही कृशकाय।पांच वर्ष की आयु में विद्यारंभ। प्राथमिक स्तर पर फारसी की शिक्षा। 10वर्ष की आयु तक प्राथमिक शिक्षा पूरी हो जाती है। इसी आयु में विवाह। आगे की पढाई के लिए बालक तीरथरामगुजरांवालाजाता है। वहां पंडित हीरानन्दके मित्र धन्नारामका निवास-स्थान। उन्हीं के यहां रहकर तीरथरामकी पढाई। 14वर्ष की आयु में तीरथराममैट्रिक परीक्षा में पूरे राज्य में प्रथम स्थान प्राप्त करता है। पुरस्कार स्वरूप उसे राज्य की ओर से छात्रवृत्ति। आगे की पढाई के लिए तीरथरामलाहौर जाता है। पिता की वित्तीय स्थिति चिन्तनीय। वे तीरथको आगे पढाने में असमर्थ। तीरथछात्रवृत्ति के सहारे ही आगे पढने का निर्णय लेता है। अध्ययन क्रम में अनेक व्यवधान। तीरथअपनी संकल्प-शक्ति के सहारे सारी विघ्न-बाधाओं को पार कर जाता है। वह इण्टरमीडिएट परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करता है। उसे पुन:छात्रवृत्ति मिलती है। एक ओर तो शैक्षिक सफलता का यह क्रम, दूसरी ओर भीषण परिस्थितियां तीरथरामके धैर्य और आत्मविश्वास की परीक्षा लेने के लिए और अधिक आतुर। पिता जी तीरथरामकी पत्नी को उसके पास छोड जाते हैं। कहां तो अपना ही ठिकाना नहीं, कहां एक और प्राणी के योगक्षेम के वहन की समस्या। कभी-कभी तो इस दम्पति को निराहारतक रह जाना पडता है। तीरथरामनंगे पांव विद्यालय जाता है। बीएकी परीक्षा में संस्कृत और फारसी विषयों में तीरथको उच्चांक मिलते हैं पर अंग्रेजी में वह अनुत्तीर्ण हो जाता है। अत:पूरी परीक्षा में अनुत्तीर्ण। अब क्या किया जाय? कहीं से कोई सहारा नहीं। इसी घोर अंधकार में आशा का एक दीप टिमटिमाता है। झंडूमलनाम का एक मिठाई वाला है। वह तीरथरामके परिवार के भोजन,आवास आदि की व्यवस्था करता है। इससे तीरथराममें थोडा आत्मविश्वास जगता है। वह पूरी शक्ति लगाकर परीक्षा की तैयारी करता है और अगले वर्ष पूरे विश्वविद्यालय में बीएकी परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करता है। उसे पुन:छात्रवृत्ति मिलती है। तीरथरामकी आयु 19वर्ष है। तीरथरामलाहौर विश्वविद्यालय से ही गणित विषय में परास्नातक परीक्षा उत्तीर्ण करता है। तीरथरामजीविकोपार्जन हेतु सियालकोटमें अमेरिकन मिशन द्वारा संचालित एक विद्यालय में शिक्षण-कार्य प्रारम्भ करता है। वेतन होता है 80रुपये प्रतिमाह। इसी क्रम में वह दो पुत्रों का पिता हो जाता है। पुत्रों के नाम हैं, मदन गोस्वामी और ब्रह्मानन्द। परिवार के बन्धनों और जीविकोपार्जन की बाध्यताओं से तीरथरामका मन क्रमश:उचटने लगता है। उसकी व्याकुलता दिनों-दिन बढती जाती है।
अंतत:25वर्ष की आयु में नौकरी-चाकरी, घर परिवार छोडकर तीरथरामऋषिकेश के पास ब्रह्मपुरी में निवास करने लगता है। ऐसी लोकमान्यताहै कि इसी स्थान पर तीरथरामको दिव्य-ज्ञान की प्राप्ति होती है। 28वर्ष की अवस्था में तीरथरामएक नया व्यक्तित्व ग्रहण करते हैं। वे तीरथरामसे स्वामी रामतीर्थ हो जाते हैं। वे परम्परागत संन्यास की सीमाओं में बंधना नहीं चाहते हैं। बस, शिखा और सूत्र गंगा जी में फेंककर संन्यास-भाव में आ जाते हैं। टेहरीके महराज ज्ञानाभासे प्रभावित होकर आपको देश-विदेश की यात्रा हेतु प्रेरित करते हैं। स्वामी रामतीर्थ जापान एवं अमेरिका की यात्रा करते हैं। इन देशों में वे लोगों को भारत के औपनिषदिक ज्ञान की झलक दिखाते हैं।
अमेरिका में उनका प्रवास लगभग दो वर्षो
तक रहता है। विदेश-यात्रा से लौटकर महाराज
टेहरीके विशेष आग्रह पर स्वामी रामतीर्थ टेहरीराज्य में गंगा जी के किनारे एक कुटी में निवास करने लगते हैं। एक दिन ब्रह्म मुहूर्त में स्वामी रामतीर्थ गंगा-स्नान हेतु जाते हैं। स्नान क्रम में वे आगे ही बढते जाते हैं। अचानक वे एक भंवर में फंस जाते हैं और वहीं उनकी जलसमाधि बन जाती है। यह घटना 1906की है। इस समय स्वामी जी की आयु मात्र 33वर्ष है। स्वामी जी फारसी, संस्कृत और हिंदी के अच्छे कवि थे।