शुक्रवार, 14 मई 2010

वीरता व बलिदान के प्रतीक गुरु

धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए गुरु गोविन्द सिंह ने अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। इतिहास में ऐसी वीरता और बलिदान कम ही देखने को मिलता है। इसके बावजूद इतिहासकारों ने इस महान शख्सियत को वह स्थान नहीं दिया जिसके वे हकदार हैं। इतिहासकार लिखते हैं कि गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पिता का बदला लेने के लिए तलवार उठाई। जिस बालक ने स्वयं अपने पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित किया हो, क्या संभव है कि वह स्वयं लडने के लिए प्रेरित होगा?
गुरु गोविन्द सिंह को किसी से वैर नहीं था, उनके सामने तो पहाडी राजाओं की ईष्र्या पहाड जैसी ऊंची थी, तो दूसरी ओर औरंगजेबकी धार्मिक कट्टरता की आंधी लोगों के अस्तित्व को लीलरही थी। ऐसे समय में गुरु गोविन्द सिंह ने समाज को एक नया दर्शन दिया-आध्यात्मिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए तलवार धारण करना। जफरनामा में स्वयं गुरु गोविन्द सिंह लिखते हैं- जब सारे साधन निष्फल हो जायें, तब तलवार ग्रहण करना न्यायोचित है। धर्म एवं समाज की रक्षा हेतु ही गुरु गोविन्द सिंह ने 1699ई.में खालसा पंथ की स्थापना की। खालसा यानिखालिस (शुद्ध), जो मन, वचन एवं कर्म से शुद्ध हो और समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो। उन्होंने सभी जातियों के वर्ग-विभेद को समाप्त कर न सिर्फ समानता स्थापित की बल्कि उनमें आत्म-सम्मान और प्रतिष्ठा की भावना भी पैदा की। उन्होंने स्पष्ट मत व्यक्त किया-मानस की जात सभैएक है।
गुरु नानक देव जी ने जहां विनम्रता और समर्पण पर जोर दिया था, वहीं गुरु गोविन्द सिंह ने आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता का संदेश दिया। समानता के आधार पर स्थापित खालसा पंथ में वे सिख थे, जिन्होंने किसी युद्ध कला का कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं लिया था। सिखों में यदि कुछ था तो समाज एवं धर्म के लिए स्वयं को बलिदान करने का जज्बा।
गुरु गोविन्द सिंह का एक और उदाहरण उनके व्यक्तित्व को अनूठा साबित करता है-पांच प्यारे बनाकर उन्हें गुरु का दर्जा देकर स्वयं उनके शिष्य बन जाते हैं और कहते हैं-जहां पांच सिख इकट्ठे होंगे, वहीं मैं निवास करूंगा। खालसा मेरोरूप है खास, खालसा में हो करो निवास। सेनानायक के रूप में पहाडी राजाओं एवं मुगलों से कई बार संघर्ष किया। युद्ध के मैदान में उनकी उपस्थिति मात्र से सैनिकों में उत्साह एवं स्फूर्ति पैदा हो जाती थी। चण्डी चरित में लिखा सवैया शूरवीरों का मंत्र बन गया था-देह शिवा वर मोहिएहैभुभकरमनतेकबहूंन टरौ,न डरो अरि सो जब जाइलरोनिसचैकर अपनी जीत करो।
जहां शिवाजी राजशक्ति के शानदार प्रतीक हैं, वहीं गुरु गोविन्द सिंह एक संत और सिपाही के रूप में दिखाई देते हैं। क्योंकि गुरु गोविन्द सिंह को न तो सत्ता चाहिए और न ही सत्ता सुख। उनका विषय तो शान्ति एवं समाज कल्याण था। अपने माता-पिता, पुत्रों और हजारों सिखों के प्राणों की आहुति देने के बाद भी वह औरंगजेबको फारसी में लिखे अपने पत्र जफरनामा में लिखते हैं- औररंगजेब तुझे प्रभु को पहचानना चाहिए तथा प्रजा को दु:खी नहीं करना चाहिए। कुरान की कसम खाकर तूने कहा था कि मैं सुलह रखूंगा, लडाई नहीं करूंगा, यह कसम तुम्हारे सिर पर भार है। तू अब उसे पूरा कर। गुरु गोविंद सिंह एक आध्यात्मिक गुरु के अतिरिक्त एक महान विद्वान भी थे। उन्होंने पाउन्टासाहिब के अपने दरबार में 52कवियों को नियुक्त किया था। जफरनामा एवं विचित्र नाटक गुरु गोविन्द सिंह की महत्वपूर्ण कृतियां हैं। वह स्वयं सैनिक एवं संत थे। इसी भावनाओं का पोषण उन्होंने अपने सिखों में भी किया। सिखों के बीच गुरु गद्दी को लेकर कोई विवाद न हो इसके लिए उन्होंने गुरुग्रन्थ साहिब को गुरु का दर्जा दिया। इसका श्रेय भी प्रभु को देते हुए कहते हैं-आज्ञा भई अकाल की तभी चलाइयोपंथ, सब सिक्खनको हुकम है गुरू मानियहुग्रंथ।
गुरुनानक की दसवीं जोत गुरु गोविंद सिंह अपने जीवन का सारा श्रेय प्रभु को देते हुए कहते है-मैं हूं परम पुरखको दासा, देखन आयोजगत तमाशा। ऐसी शख्सियत को शत-शत नमन।

सतत् यायावर स्वामी रामतीर्थ

पंजाब के मुरलीवालाग्राम के निवासी पण्डित हीरानंदके परिवार में सन् 1873ई.में दीवाली के दिन एक पुत्ररत्नकी प्राप्ति होती है। नाम रखा जाता है तीरथराम।शिशु-जन्म के कुछ दिन बाद माता का देहान्त। शिशु के पालन-पोषण का भार उसकी बुआ पर। बालक तीरथशैशवकाल से ही कृशकाय।पांच वर्ष की आयु में विद्यारंभ। प्राथमिक स्तर पर फारसी की शिक्षा। 10वर्ष की आयु तक प्राथमिक शिक्षा पूरी हो जाती है। इसी आयु में विवाह। आगे की पढाई के लिए बालक तीरथरामगुजरांवालाजाता है। वहां पंडित हीरानन्दके मित्र धन्नारामका निवास-स्थान। उन्हीं के यहां रहकर तीरथरामकी पढाई। 14वर्ष की आयु में तीरथराममैट्रिक परीक्षा में पूरे राज्य में प्रथम स्थान प्राप्त करता है। पुरस्कार स्वरूप उसे राज्य की ओर से छात्रवृत्ति। आगे की पढाई के लिए तीरथरामलाहौर जाता है। पिता की वित्तीय स्थिति चिन्तनीय। वे तीरथको आगे पढाने में असमर्थ। तीरथछात्रवृत्ति के सहारे ही आगे पढने का निर्णय लेता है। अध्ययन क्रम में अनेक व्यवधान। तीरथअपनी संकल्प-शक्ति के सहारे सारी विघ्न-बाधाओं को पार कर जाता है। वह इण्टरमीडिएट परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करता है। उसे पुन:छात्रवृत्ति मिलती है। एक ओर तो शैक्षिक सफलता का यह क्रम, दूसरी ओर भीषण परिस्थितियां तीरथरामके धैर्य और आत्मविश्वास की परीक्षा लेने के लिए और अधिक आतुर। पिता जी तीरथरामकी पत्नी को उसके पास छोड जाते हैं। कहां तो अपना ही ठिकाना नहीं, कहां एक और प्राणी के योगक्षेम के वहन की समस्या। कभी-कभी तो इस दम्पति को निराहारतक रह जाना पडता है। तीरथरामनंगे पांव विद्यालय जाता है। बीएकी परीक्षा में संस्कृत और फारसी विषयों में तीरथको उच्चांक मिलते हैं पर अंग्रेजी में वह अनुत्तीर्ण हो जाता है। अत:पूरी परीक्षा में अनुत्तीर्ण। अब क्या किया जाय? कहीं से कोई सहारा नहीं। इसी घोर अंधकार में आशा का एक दीप टिमटिमाता है। झंडूमलनाम का एक मिठाई वाला है। वह तीरथरामके परिवार के भोजन,आवास आदि की व्यवस्था करता है। इससे तीरथराममें थोडा आत्मविश्वास जगता है। वह पूरी शक्ति लगाकर परीक्षा की तैयारी करता है और अगले वर्ष पूरे विश्वविद्यालय में बीएकी परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करता है। उसे पुन:छात्रवृत्ति मिलती है। तीरथरामकी आयु 19वर्ष है। तीरथरामलाहौर विश्वविद्यालय से ही गणित विषय में परास्नातक परीक्षा उत्तीर्ण करता है। तीरथरामजीविकोपार्जन हेतु सियालकोटमें अमेरिकन मिशन द्वारा संचालित एक विद्यालय में शिक्षण-कार्य प्रारम्भ करता है। वेतन होता है 80रुपये प्रतिमाह। इसी क्रम में वह दो पुत्रों का पिता हो जाता है। पुत्रों के नाम हैं, मदन गोस्वामी और ब्रह्मानन्द। परिवार के बन्धनों और जीविकोपार्जन की बाध्यताओं से तीरथरामका मन क्रमश:उचटने लगता है। उसकी व्याकुलता दिनों-दिन बढती जाती है।
अंतत:25वर्ष की आयु में नौकरी-चाकरी, घर परिवार छोडकर तीरथरामऋषिकेश के पास ब्रह्मपुरी में निवास करने लगता है। ऐसी लोकमान्यताहै कि इसी स्थान पर तीरथरामको दिव्य-ज्ञान की प्राप्ति होती है। 28वर्ष की अवस्था में तीरथरामएक नया व्यक्तित्व ग्रहण करते हैं। वे तीरथरामसे स्वामी रामतीर्थ हो जाते हैं। वे परम्परागत संन्यास की सीमाओं में बंधना नहीं चाहते हैं। बस, शिखा और सूत्र गंगा जी में फेंककर संन्यास-भाव में आ जाते हैं। टेहरीके महराज ज्ञानाभासे प्रभावित होकर आपको देश-विदेश की यात्रा हेतु प्रेरित करते हैं। स्वामी रामतीर्थ जापान एवं अमेरिका की यात्रा करते हैं। इन देशों में वे लोगों को भारत के औपनिषदिक ज्ञान की झलक दिखाते हैं।
अमेरिका में उनका प्रवास लगभग दो वर्षो
तक रहता है। विदेश-यात्रा से लौटकर महाराज
टेहरीके विशेष आग्रह पर स्वामी रामतीर्थ टेहरीराज्य में गंगा जी के किनारे एक कुटी में निवास करने लगते हैं। एक दिन ब्रह्म मुहूर्त में स्वामी रामतीर्थ गंगा-स्नान हेतु जाते हैं। स्नान क्रम में वे आगे ही बढते जाते हैं। अचानक वे एक भंवर में फंस जाते हैं और वहीं उनकी जलसमाधि बन जाती है। यह घटना 1906की है। इस समय स्वामी जी की आयु मात्र 33वर्ष है। स्वामी जी फारसी, संस्कृत और हिंदी के अच्छे कवि थे।

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

महाकवि कालिदास का ज्योतिष प्रेम

कवि कुलगुरु कालिदासकी विद्वताऔर बहुमुखी प्रतिभा ने विश्व के समस्त विद्वानों को आकृष्ट किया है। संस्कृत से इतर भाषाओं के विद्वान भी उनकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते हैं। उनके ग्रंथों में चारों पुरुषार्थ (धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष),अर्थशास्त्र, कामशास्त्र, संगीत, दर्शन, इतिहास, भूगोल एवं ज्योतिष के साथ-साथ अन्यान्य विषयों का भी समावेश मिलता है। महाकवि कालिदासने कई महाकाव्यों की रचना की, जिनमें सात प्रसिद्ध हैं-रघुवंशम्, कुमारसंभवम्,मेघदूतम्, ऋतुसंहारम्,अभिज्ञानशाकुंतलम्,विक्रमोर्वशीयम्तथा मालविकाग्निमित्रम्।इन ग्रंथों में यत्र-तत्र ज्योतिषीयप्रयोग महाकवि के ज्योतिष प्रेम को प्रकट करते हैं। महाकवि ने काव्य रचना के साथ जहां आवश्यकता हुई वहां स्पष्ट रूप से ज्योतिष संदर्भो को समायोजित किया। अपने ग्रंथों में महाकवि ने नक्षत्र, तारा, तिथि, मुहूर्त, अयन, ग्रह, दशा, रत्न, ग्रहशांति,शकुन, यात्रा, स्वप्न, राजयोग, ग्रहों की उच्चता,नीचता,वक्रत्व,मार्गत्व,ग्रहण, संक्रांति, ग्रहों का योग, काल विधान, पुनर्जन्म, भवितव्यताआदि का प्रसंगवशवर्णन किया है। अभिज्ञान शाकुन्तलम्के मंगलाचरण में भगवान शंकर की अष्टमूर्तियोंमें सूर्य चंद्रमा रूपी मूर्ति का उल्लेख करते हुए ये द्वेकालंविधत्त:कहकर संपूर्ण काल विधान जो ज्योतिष शास्त्र का मूल उद्देश्य है, को स्पष्ट कर दिया। वस्तुत:तिथि, वार, नक्षत्र योग तथा करण जो पंचाङ्गहैं, सूर्य- चंद्रमा पर ही आधारित हैं। दिवा-रात्रि ही नहीं सृष्टि से लेकर प्रलय पर्यन्त सूर्य चंद्रमा ही काल का विधान कर रहे हैं। ये दोनों ज्योतिषशास्त्र के मेरुदंड हैं। इनमें भी चंद्रमा, सूर्य से ही पोषित हो रहा (प्रकाशित हो रहा है) का स्पष्ट उल्लेख रघुवंशम्के तृतीय सर्ग में है-पुपोषवृद्धिं हरिदश्वदीधितेरनुप्रवेशादिवबालचन्द्रमा:।
किसी भी जातक की कुंडली में यदि पांच ग्रह निर्मल होकर अपने उच्च स्थान में स्थित हों, तो वह जातक निश्चित ही चक्रवर्ती सम्राट होता है,ज्योतिष शास्त्र के इस कथन को महाराजा रघु के जन्मकालकी ग्रह स्थिति (कुंडली) से महाकवि ने प्रमाणित किया है। ग्रहों की प्रतिकूलता में ग्रहशांतिअवश्यमेव लाभदायी होती है, तभी तो महर्षि कण्व शकुन्तला के प्रतिकूल ग्रहशांतिहेतु सोमतीर्थजाते हैं-दैवमस्या: प्रतिकूलंशमयितुंसोमतीर्थगत:। विवाह में शुभ मुहूर्त आवश्यक होता है। हिमालय पुत्री पार्वती से शिव का विवाह निश्चित हो गया तब मांङ्गलिककृत्य जो विवाह से पूर्व होते हैं, को मैना ने मैत्र मुहूर्त तथा उत्तराफाल्गुनीनक्षत्र में कराया। सप्तर्षिगणोंसे विवाह की तिथि पूछकर हिमालय ने स्वाती नक्षत्र में विवाह का दिन निश्चित किया। विवाह का श्रेष्ठ नक्षत्र स्वाती ज्योतिर्विदोंमें मान्य है। इतना ही नहीं वैवाहिक लग्न में सप्तम स्थान सर्वथा शुद्ध होना चाहिए।
विवाह के पश्चात् वधू प्रवेश तथा द्विरागमन में शुक्र सन्मुखप्रतिकूल रहता है। इसका उल्लेख कुमारसम्भवम्के तीसरे सर्ग में किया है। मालविकागिन्मित्रम्में विदूषक राजा से कहता है, चलिए हम लोग निकल चलें कहीं मंगलग्रह के समान वक्री गति से चलता हुआ वह पुन:पिछले राशि पर न आ जाए।
पुन:कहता है कि हे राजन्! ज्योतिषियों ने कहा है कि इस समय आपका नक्षत्र प्रतिकूल चल रहा है। दशाएं अनुकूल एवं प्रतिकूल होती रहती हैं। दोनों में सम रहना चाहिए।
सूर्य की संक्रांति तथा अयन की चर्चा रघुवंशम्के नवम सर्ग में दशरथ के मृगया प्रसंग में द्रष्टव्य है, जहां वर्णन है कि महाराजा दशरथ आखेट करते हुए सुदूर दक्षिण दिशा में चले गए। उस दिन उत्तरायण की स्थिति बन रही थी। सूर्य उत्तर की ओर मुडना चाह रहे थे, उसी समय महाराजा दशरथ ने भी अपना रथ उत्तर की ओर मोड दिया।
नक्षत्रों में अश्रि्वनी, कृत्तिका, पुनर्वसु,पुष्य,उत्तराफाल्गुनी,चित्रा,विशाखाका उल्लेख करते हुए किस नक्षत्र में कितने तारे हैं, का वैज्ञानिक वर्णन किया है। तिथियों में प्रतिपदा,अमावस्या,पूर्णिमा के साथ एकादशी का भी उल्लेख है। मेघदूतम्के उत्तर भाग में प्रबोधनी(देवोत्थान) एकादशी का उल्लेख करते हुए उस दिन यक्ष के शाप निवृत्ति की बात कही है। यही कारण है कि संस्कृत के अनेक विद्वानों ने यही कालिदासकी जन्मतिथि मानी है। मेघों के निर्माण में धुआं, प्रकाश, जल तथा वायु कारण है, का भी उल्लेख उनकी वैज्ञानिक दृष्टि का संकेत करता है। अषाढ माह में वर्षारंभ का उल्लेख मेघदूतम्के दूसरे श्लोक में किया है।
वर्षा के पश्चात अगस्त्य तारा का उदय होता है, का प्रामाणिक ज्योतिषीयवर्णन किया है। कभी वर्षा के समय यदि कू्रर ग्रह वर्षाकारकग्रहों के मध्य आ जाए तो वर्षा नहीं होती, अकाल पड जाता है, इसका उल्लेख रघुवंशम्में है। दो तीन ग्रहों के आपस में युति होने से परिणाम सुखद होता है इसका उल्लेख भी है। अङ्गस्फुरणसे होने वाले परिणामों का यत्र-तत्र वर्णन है। राजा दुष्यंत कण्व के आश्रम में प्रवेश करना चाहते हैं, उसी समय उनकी दाहिनी भुजा फडक उठती है, इसका परिणाम ज्योतिषशास्त्र में पत्नी लाभ कहा गया है। राजा विचार करते हैं कि भला आश्रम में यह कैसे संभव होगा तथापि भवितव्यताकहीं भी होकर रहती है। इस प्रकार वे भवितव्यतामें अपना अटल विश्वास प्रकट करते हैं। रघुवंशम्के चौदहवेंसर्ग में सीता जी का दाहिना नेत्र फडकता है इसे अपशकुन मान वह डर जाती हैं। स्वप्न दर्शन का भी फल होता है, इसका वर्णन रघुवंशम्महाकाव्य में प्राप्त होता है।
अपशकुनों का विस्तृत वर्णन कुमारसम्भवम्महाकाव्य में प्राप्त होता है। जब तारकासुरयुद्ध के लिए प्रस्थान करता है, उस समय गीधोंका झुंड दैत्यसेनाओंके समीप आकर ऊपर मंडराने लगता है, भयंकर आंधी चलने लगती है, आकाश मंडल जलते हुए अंगारों, रुधिरोंऔर हड्डियों के साथ बरसने लगता है तथा दिशाएं जलती हुई प्रतीत होने लगी, ऐसा लगता था जैसे दिशाएं धुंआउगल रही हैं। हाथी लडखडाने लगे, घोडे जमीन से गिरने लगे, सेनाओं में कम्पन होने लगा, कुत्ते इकट्ठे होकर मुख को ऊपर करके सूर्य में दृष्टि लगाकर कान के पर्दे को फाडने वाली भयंकर आवाज में रोने लगे। ऐसे अनेक अपशकुनों को देखकर भी तारकासुरने प्रस्थान किया और उसका परिणाम वह युद्ध में मारा गया। रघुवंशम्में बारहवें सर्ग में जब खर दूषण राम से युद्ध के लिए प्रस्थान करते हैं तो वे शूर्पनखाको आगे करके चले, उसकी नाक कटी थी, अत:यही अपशकुन हो गया, और खरदूषणका विनाश हुआ। रत्‍‌नों का भी प्रभाव मानव पर पडता है, इसके अनेक उदाहरण महाकवि ने दिए हैं। सूर्यकान्तमणिसूर्य की किरणों के स्पर्श से आग उगलती है जबकि चंद्रकान्तमणिचंद्र किरणों के स्पर्श से जल। रत्‍‌न विद्ध होने से कम प्रभावी होते हैं, जैसा कि शकुन्तला के सौंदर्य वर्णन में अनाविद्धं रत्नम्कहा है। पन्ना, माणिक्य, पद्मराग, पुखराज आदि रत्‍‌नों का यथास्थान प्रसंगवशउल्लेख आया है।
इन ज्योतिषीयवर्णनों को देखकर कहा जा सकता है कि महाकवि कालिदासजितने काव्यमर्मज्ञ थे, उतने ही ज्योतिषमर्मज्ञभी। हों भी क्यों न उन पर भगवान् महाकालेश्वर एवं भगवती महाकाली जगदंबा का वरदहस्तजो था।

समतामूलक समाज के पक्षधर गुरु गोविंद सिंह

सिखों के दशम गुरु, गुरु गोविंद सिंह का बहुआयामी व्यक्तित्व इतिहास-पृष्ठों में अमरत्व प्राप्त कर चुका है। खालसा-पंथ की स्थापना के द्वारा न केवल उन्होंने धर्म, संस्कृति व मानवता की रक्षा की,बल्कि उन्होंने सिखों को वीरता का प्रतीक बना दिया। इसके पूर्व सिख दो पाटों के बीच पीस रहे थे। मुगल सुल्तानों और पहाडी राजाओं ने उनकी नींद उडा दी थी। खालसा के सिंहों ने जब आक्रामक मुद्रा अपनाई तो विरोधी भय से अपने बिलों में घुसने लगे। गुरु स्वयं वीरता और साहस के साक्षात स्वरूप थे, अत:वे अपने अनुयायियों को भी शौर्य और साहस का पाठ पढाने में सफल हुए। गोविंद सिंह पटना में बीताए अपने बाल्यकाल में ही तीरंदाजी, घुडसवारी एवं तलवार-संचालन में रुचि लेने लगे थे। नौ वर्ष की उम्र में जब पाटलिपुत्र को छोडकर आनंदपुर पहुंचे तो अपनी वीरता को परवान चढाने का उन्हें और अवसर उपलब्ध हुआ। गुरु-गद्दी संभालते ही उन्हें शत्रुओं से घिरे होने का आभास हो गया और इस आभास और संघर्ष ने उनसे अन्तत:खालसा की नींव डलवाई। इसका एक-एक सैनिक गुरु के साहस और शौर्य से प्रेरित होकर अदम्य योद्धा बन आया। संतुष्ट गुरु ने यों ही नहीं कहा-
सवा लाख से एक लडाऊं चिडियों से मैं बाज तुडाऊं। तभी गोविंद सिंह नाम कहाऊं॥
गुरु समतामूलक समाज के पक्षधर थे। उन्होंने प्रचलित वर्ण-व्यवस्था, जाति-पाति का विरोध करते हुए सिख धर्म के द्वार को सभी लोगों के लिए उद्घाटित कर दिया था। दीनहीन,अछूत-छूत सभी खालसा के समर्पित सैनिक थे। महान एवं साहसी गुरु से प्रशिक्षण पा कर सैनिक अब नर से नरसिंह बन आए थे। ऐसे युगान्तरकारीपुरुष इतिहास में कम ही मिलते हैं। शत्रुओं के छिट-फुटआक्रमणों का विध्वंस तो खालसा-वीरों ने किया ही। गुरु और उनके सैनिकों की असल परीक्षा तब हुई जब 26जून, 1700को मुगलों और पहाडी राजाओं की तीस हजार की सम्मिलित सेना ने आनंदपुर की ओर कूच कर दिया। गुरु मुश्किल से 6-7हजार खालसा सैनिक एकत्रित कर पाए। इन सभी का उन्होंने अपने सफेद घोडे पर सवार होकर नेतृत्व किया और उनमें अपने ओजस्वी भाषण से ऐसा पराक्रम और साहस भरा कि मुट्ठी भर सिख सेना शत्रुओं की अपार सेना से जा भिडी। उत्साहित वीर अपने गुरु की तलवार की बिजली सी चमक के कमाल से प्रभावित हो शत्रुओं की दीवार को भेद कर अन्दर तक पहुंच गए। एक-एक सिख-सैनिक ने दस-दस शत्रुओं के सिर कलम किए। यह सचमुच सवा लाख से एक के लडने का दृश्य था। सिख-सिंह मुगल सैनिकों को धूल चटा रहे थे। शत्रुओं के रक्त की नदी प्रवाहित हो गई। स्वयं गुरु गोविन्द सिंह ने शत्रु-पक्ष के मुगल-सरदार पाइन्दाखां की गर्दन अपने बाण से बेध कर उसे यमलोक पहुंचा दिया। शत्रु-सेना के पैर उखड गए, वह भाग खडी हुई। गुरु ने पीठ पर प्रहार करने से मना किया और सिखों की विजय-वाहिनी अपने किले में वापस आई।
गुरु धर्म के भारी पक्षधर थे और उन्होंने अपनी आत्मकथा विचित्र नाटक में स्पष्ट किया है- हम इहकाज जगत मोंआए। धरम हेतु गुरुदेव पठाए॥जहां-तहां तुम धरम विथारो॥दुष्ट देखियतपकरिपछारो॥
गुरु को पता था कि बिना बल के धर्म की रक्षा असंभव है। जब उनके चारों ओर विधर्मी उन पर घात लगाए बैठे थे, तो वह अपनी ही रक्षा शस्त्रास्त्र के बिना नहीं कर सकते थे। धर्म की रक्षा वे कैसे करते? अत:उन्होंने धर्म से कम महत्व शस्त्र को नहीं दिया। इसका सबसे बडा प्रमाण यह है कि उन्होंने सिखों को एक बहादुर कौम बना दिया और उनके लिए पांच ककारों को अनिवार्य कर दिया।
गुरु की वीरता की गाथा तो अप्रमेय है ही। धर्म की रक्षा में अपने और अपने परिवार तक की बलि चढा देने का अप्रतिम उदाहरण भी उन्होंने रखा। कश्मीर में मुगलों के उत्पात से रक्षा के लिए जब शिष्टमंडल पहुंचा तो गोविंद सिंह ने ही अपने पिता गुरु तेगबहादुरको वहां जाने को प्रेरित किया और वह दिल्ली के चांदनी चौक पर ही शत्रुओं द्वारा शहीद कर दिए गए। गुरु के दोनों लडके मुगलों द्वारा दीवार में चुनवा दिए गए। मानवता की रक्षा के लिए इतना बडा त्याग और बलिदान बिरले ही देखने को मिलता है।

सच्चा आध्यात्मिक नायक स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद आधुनिक भारत के एक क्रांतिकारी संत हुए हैं। 12जनवरी, 1863को कलकत्ता में जन्मे इस युवा संन्यासी के बचपन का नाम नरेंद्र नाथ था। इन्होंने अपने बचपन में ही परमात्मा को जानने की तीव्र जिज्ञासावशतलाश आरंभ कर दी। इसी क्रम में सन् 1881में प्रथम बार रामकृष्ण परमहंस से भेंट की और उन्हें अपना गुरु स्वीकार कर लिया तथा अध्यात्म-यात्रा पर चल पडे। काली मां के अनन्य भक्त स्वामी विवेकानंद ने आगे चलकर अद्वैत वेदांत के आधार पर सारे जगत को आत्म-रूप जताया और कहा कि आत्मा को हम देख नहीं सकते किंतु अनुभव कर सकते हैं। यह आत्मा जगत के सर्वाश में व्याप्त है। सारे जगत का जन्म उसी से होता है, फिर वह उसी में विलीन हो जाता है। उन्होंने धर्म को मनुष्य, समाज और राष्ट्र निर्माण के लिए स्वीकार किया और कहा कि धर्म मनुष्य के लिए है,मनुष्य धर्म के लिए नहीं। भारतीय जन के लिए, विशेषकर युवाओं के लिए उन का नारा था -उठो, जागो और लक्ष्य की प्राप्ति होने तक रुको मत।
31मई, 1883को वह अमेरिका गए।
11सितंबर, 1883में शिकागोके विश्व धर्म सम्मेलन में उपस्थित होकर अपने संबोधन में सबको भाइयो और बहनोकह कर संबोधित किया।
इस आत्मीय संबोधन पर मुग्ध होकर सब बडी देर तक तालियां बजाते रहे। वहीं उन्होंने शून्य को ब्रह्म सिद्ध किया और भारतीय धर्म दर्शन अद्वैत वेदांत की श्रेष्ठता का डंका बजाया, उनका कहना था कि आत्मा से पृथक करके जब हम किसी व्यक्ति या वस्तु से प्रेम करते हैं, तो उसका फल शोक या दु:ख होता है।
अत:हमें सभी वस्तुओं का उपयोग उन्हें आत्मा के अंतर्गत मान कर करना चाहिए या आत्म-स्वरूप मान कर करना चाहिए ताकि हमें कष्ट या दु:ख न हो। अमेरिका में चार वर्ष रहकर वह धर्म-प्रचार करते रहे तथा 1887में भारत लौट आए। फिर बाद में 18नवंबर,1896 को लंदन में अपने एक व्याख्यान में कहा था, मनुष्य जितना स्वार्थी होता है, उतना ही अनैतिक भी होता है।
उनका स्पष्ट संकेत अंग्रेजों के लिए था, किंतु आज यह कथन भारतीय समाज के लिए भी कितना अधिक सत्य सिद्ध हो रहा है? स्वामी विवेकानंद ने धर्म को मात्र कर्मकांड की निर्जीव क्रियाओं से निकाल कर सामाजिक परिवर्तन की दिशा में लगाने पर बल दिया। वह सच्चे मानवतावादी संत थे। अत:उन्होंने मनुष्य और उसके उत्थान और कल्याण को सर्वोपरि माना। इस धरातल पर सभी मानवों और उनके विश्वासों का महत्व देते हुए धार्मिक जड सिद्धांतों तथा सांप्रदायिक भेदभाव को मिटाने के आग्रह किए।
युवाओं के लिए उनका कहना था कि पहले अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाओ, मैदान में जाकर खेलो, कसरत करो ताकि स्वस्थ-पुष्ट शरीर से धर्म-अध्यात्म ग्रंथों में बताए आदर्शो में आचरण कर सको। आज जरूरत है ताकत और आत्म विश्वास की, आप में होनी चाहिए फौलादी शक्ति और अदम्य मनोबल।
विवेकानंद ने शिक्षा को अध्यात्म से जोड कर कहा कि जिस संयम के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है। हमें तो ऐसी शिक्षा चाहिए जिससे चरित्र बने, मानसिक बल बढे, बुद्धि का विकास हो और जिससे मनुष्य अपने पैरों पर खडा हो सके।
पराधीन भारतीय समाज को उन्होंने स्वार्थ, प्रमाद व कायरता की नींद से झकझोर कर जगाया और कहा कि मैं एक हजार बार सहर्ष नरक में जाने को तैयार हूं यदि इससे अपने देशवासियों का जीवन-स्तर थोडा-सा भी उठा सकूं।
इस प्रकार एक सच्चे भारतीय संत की मर्यादा के अनुरूप स्वामी विवेकानंद ने अशिक्षा, अज्ञान, गरीबी तथा भूख से लडने के लिए अपने समाज को तैयार किया तो राष्ट्रीय चेतना जगाने, सांप्रदायिकता मिटाने, मानवतावादी संवेदनशील समाज बनाने की एक आध्यात्मिक नायक की भूमिका निभाते हुए 4जुलाई सन् 1902में कुल 39वर्ष की आयु में अपनी इहलीला समाप्त की।

काशी के सचल विश्वनाथ श्रीतैलंग स्वामी

श्रीतैलंगस्वामी अध्यात्म जगत की ऐसी अतिविशिष्ट विभूति हैं, जिनकी तुलना किसी अन्य से कर पाना संभव नहीं लगता। ये एक परमसिद्धयोगी और जीवन्मुक्त पुरुष थे। इन महापुरुष का जन्म दक्षिण भारत के एक संपन्न ब्राह्मण परिवार में सन् 1607ई. के जनवरी माह में पौष-शुक्ल-एकादशीके पावन दिन हुआ था। इनके पिता नृसिंहधरऔर माता विद्यावती देवी नि:संतान होने के कारण बहुत दु:खी व चिंतित रहते थे। पुत्र-प्राप्ति की कामना से उन दोनों ने गौरीशंकर की आराधना एवं ब्राह्मणों की सेवा बडी श्रद्धा से की। स्वामीजीका आविर्भाव इसी के फलस्वरूप हुआ। पिता ने नामकरण किया तैलंगधर। माता विद्यावती ने एक दिन शिवार्चन करते समय देखा कि शिवलिंगसे एक दिव्य ज्योति निकल कर उनके पुत्र में समाविष्ट हो गई। इससे प्रभावित होकर मां ने इनका नाम शिवराम रख दिया।
बचपन से ही इनमें सांसारिक विषयों के प्रति वैराग्य तथा अध्यात्म की ओर प्रवृत्ति थी। युवावस्था आते-आते भौतिकता से इनकी उदासीनता स्पष्ट दिखलाई पडने लगी। माता-पिता ने तैलंगधरको विवाह के बंधन में बांधना चाहा, लेकिन इन्होंने वैराग्य की अति तीव्र भावना के कारण इसकी सम्मति नहीं दी। तैलंगधरजब 40वर्ष के थे, तब उनके पिता का देहावसान हो गया। वे अपनी माता की सेवा करते हुए ईश्वर के चिंतन में निमग्न हो गए। 52वर्ष की अवस्था में माताश्री का स्वर्गवास हो जाने पर ये सांसारिक दायित्वों से पूरी तरह मुक्त हो गए। जिस श्मशान में माता का दाह-संस्कार हुआ था, उसी निर्जन स्थान पर वे रहने लगे। उनके अनुज श्रीधर ने उन्हें घर वापस लाने का बहुत प्रयास किया किन्तु तैलंगधरन माने। तब श्रीधर ने अपने बडे भाई के लिए वहां एक कुटी बनवा दी। तैलंगधरने वहाँ 20वर्ष तक अत्यन्त कठोर साधना की। सन् 1679में इनकी भेंट स्वामी भगीरथानन्दसरस्वती नामक महायोगीसे हुई, जिनके साथ वे राजस्थान के सुप्रसिद्ध तीर्थ पुष्कर आ गए। वहीं पर भगीरथानन्दने सन् 1685ई.में इन्हें दीक्षा दी और इनका नाम गणपति स्वामी हो गया। 10वर्षो तक गुरु-शिष्य दोनों ने पुष्कर में एक साथ तप किया। सन् 1695ई. में गुरु के देह त्याग देने के दो वर्ष बाद वे तीर्थाटन के लिए निकल पडे। सन् 1697ई. में रामेश्वर की दर्शन-यात्रा में जब इन्होंने एक मृत ब्राह्मण को पुन:जीवित कर दिया तब लोगों ने पहली बार इनकी अलौकिक शक्ति का साक्षात्कार किया। वहाँ से कांजीवरम,कांचीपुरम,शिवकाशी,नासिक होकर सन् 1699ई. में वे सुदामापुरीपहुंचे। वहां इनकी सेवा में रत निर्धन-निपुत्र ब्राह्मण के धनवान-पुत्रवान हो जाने पर इनकी ख्याति चारों ओर फैल गई। दर्शनार्थियोंकी भीड के कारण साधना में विघ्न उपस्थित होता देखकर वे यहां से चल पडे। सन् 1701ई. में प्रभास क्षेत्र से द्वारकापुरीहोकर वे नेपाल पहुंच गए और वहां एक वन में योग-साधना करने लगे। नेपाल-नरेश इनका दर्शन करने आए और इनके भक्त बन गए। लोगों की भारी संख्या में एकत्रित होता देख वे यहां से भी प्रस्थान करके सन् 1707ई. में भीमरथीतीर्थ पहुंचे। वहां श्रृंगेरीमठ के स्वामी विद्यानन्दसरस्वती से इन्होंने संन्यास की दीक्षा ली। भीमरथीसे उत्तराखंड जाते समय वे केदारनाथ, बदरिकाश्रम,गुप्तकाशी,त्रियोगीनारायणआदि स्थानों पर भी इन्होंने तपस्या की।
उनके जैसे सिद्ध पुरुष के लिए कहीं पहुंच जाना असंभव न था। उनकी गति पृथ्वी के अतिरिक्त जल और वायु में भी थी। वे इच्छामात्रसे किसी भी स्थान पर पहुंच सकने में समर्थ थे। सन् 1710ई. में स्वामीजीमानसरोवर चले गए और वहां वे दीर्घकाल तक साधनारतरहे। यहां एक विधवा की प्रार्थना पर उसके मृत पुत्र के शरीर को स्पर्श करके स्वामी जी ने उसे पुनर्जीवित कर दिया। सन् 1726ई. में स्वामी जी नर्मदा के तट पर स्थित मार्कण्डेय ऋषि के आश्रम में आकर रहने लगे। वहां के सुप्रसिद्ध संत खाकी बाबा और अन्य लोगों ने देखा कि स्वामी जी के द्वारा पूजन करते समय नर्मदा में दूध प्रवाहित होने लगता था। सन् 1733ई. में स्वामी जी तीर्थराज प्रयाग आ गए और वहां एकांत में साधनालीनहो गए। यहां उन्होंने यात्रियों से खचाखच भरी एक नाव को अपनी यौगिक शक्ति से गंगाजीमें डूबने से बचाया।
प्रयागराज में 4वर्ष रहने के उपरांत सन् 1737ई. में तैलंगस्वामीकाशी पधारे और यहीं 150वर्ष तक रहे। वाराणसी में स्वामीजीअस्सी घाट, हनुमान घाट और दशाश्वमेधघाट आदि स्थानों पर रहने के बाद सन् 1800ई. में पंचगंगाघाट पर आकर बिंदुमाधवजी के मंदिर में रहने लगे। वहीं पास में एक महाराष्ट्रीयनब्राह्मण मंगलदासभट्ट एक कोठी में रहते थे। वे नित्य गंगा-स्नान करके बाबा विश्वनाथ जी की पूजा करने के बाद ही घर लौटते थे। मंगलदासप्रतिदिन यह देखकर बडे आश्चर्यचकित होते थे, कि जो माला उन्होंने श्रीकाशीविश्वनाथको चढाई थी, वही स्वामीजीके गले में पडी हुई है। कई बार परीक्षा करने पर भट्टजीयह जान गए कि स्वामी जी साक्षात् शिव-स्वरूप हैं। वे अनुनय-विनय करके स्वामी जी को अपनी कोठी में ले आए। स्वामीजीसदा खुले आसमान के नीचे रहते थे अत:कोठी के आंगन में बेदीबनाकर उसपरउनके रहने की व्यवस्था की गई। कालांतर में यह स्थान तैलंगस्वामीके मठ के नाम से विख्यात हो गया। तैलंगस्वामीदिगम्बरावस्थामें रहते थे। एक स्त्री अपने पति के स्वस्थ होने की कामना से प्रतिदिन जब बाबा विश्वनाथ के दर्शन-पूजन हेतु जाती थी, तब वह रास्ते में स्वामी जी को देखकर अपशब्द कह देती थी। एक रात श्रीकाशीविश्वनाथने उससे स्वप्न में कहा- तुम उस स्वामी की अवहेलना और अपमान मत करो। वे ही तुम्हारे पति को ठीक करेंगे। स्वामी जी का वास्तविक परिचय प्राप्त होते ही उस स्त्री के मन में उनके प्रति श्रद्धा की भावना जाग उठी। तैलंगस्वामीके द्वारा प्रदत्त भस्म लगाने से उसका पति रोग-मुक्त हो गया। इस प्रकार स्वामीजीने न जाने कितने लोगों को रोग-शोक, कष्ट-संताप और संकटों से मुक्त करके नवजीवन प्रदान किया। वे अत्यन्त उदार और परोपकारी थे। एक बार उज्जैनके महाराजा जब काशी की गंगा में नौका-विहार कर रहे थे, तब उन्होंने स्वामीजीको गंगाजीपर आसन जमाए देखा। श्रीरामकृष्णपरमहंस ने जब उन्हें भीषण गर्मी में तपती रेत पर लेटे देखा, तो वे स्वयं खीर बनाकर लाए और स्वामीजीको उसका भोग लगाया। परमहंसदेवउनकी दिव्यता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने तैलंगस्वामीको सचल विश्वनाथ का नाम दे दिया। एक अंग्रेज अफसर ने वस्त्रहीनरहने के कारण इन्हें हवालात में बंद कर दिया किन्तु दूसरे दिन सबेरे यह देखा गया कि हवालात का ताला तो बंद है लेकिन स्वामी जी हँसते हुए बाहर टहल रहे हैं। श्रीतैलंगस्वामीके चमत्कारों को देखकर लोग दंग रह जाते थे। भारतीय योग और अध्यात्म की पताका चारों तरफ लहरा कर सन् 1887ई. में 280वर्ष पृथ्वी पर लीला करने के उपरांत अपनी जन्मतिथि पौष-शुक्ल-एकादशीके दिन ही काशी के ये सचल विश्वनाथ ब्रह्मलीन हो गए और पीछे छोड गए अपने सद्गुणों और योग-शक्ति का प्रकाश, जो हमें आज भी ईश्वर और धर्म से जुडने की प्रेरणा दे रहा है।

मानवमात्र को समर्पित था ब्रह्मा बाबा का जीवन

संसार में वे लोग महान् और अनुकरणीय हैं, जिनका जीवन केवल अपने लिए नहीं, बल्कि मानवता की सेवा में समर्पित हो। अपने लिए तो सब जीते हैं, परंतु जो दूसरों के लिए सोचता है, वही महापुरुष होता है। जब जगत में मानवता कराह रही थी, मानवीय संवेदनाएं शून्य होने लगी थी, तब अज्ञानता के बढते तम को दूर करने के लिए एक ऐसी क्रांति की आवश्यकता महसूस होने लगी थी, जिससे मानवीय एकता और करुणा के मध्य एक मूल्यनिष्ठसमाज की स्थापना हो सके। ऐसी ही घडी में एक महान् विभूति का जन्म हुआ और आध्यात्मिक क्रांति की नींव पडी। इस महानायकका जन्म सन् 1876में सिंध प्रांत में एक कुलीन परिवार में हुआ। इनके बचपन का नाम लेखराज था। परंतु ये बचपन से ही इतने धर्म परायण थे कि इनका व्यक्तित्व कुशल एवं प्रभावी होने के कारण हर वर्ग और उम्र के लोग इन्हें प्यार से दादा कहते थे। इन्हें किसी की भी पीडा खुद की पीडा महसूस होती थी। बाल्यकाल में ही इनके पिता की मृत्यु हो गई। दादा लेखराज प्रतिदिन सर्व मनुष्यात्माओंको दु:ख की पीडा से मुक्ति के लिए परमात्मा से आराधना करते थे। दादा लेखराज ने हीरे-जवाहरात का व्यापार शुरू किया और देखते ही देखते वे इस व्यापार में विश्व प्रसिद्ध हो गए। दादा के मन में सर्व सुखोंवाली दुनिया की खोज निरंतर रहती थी, जिसमें कि दु:ख-दरिद्रता का नामोनिशान न हो। इसके लिए दादा ने अपने जीवन काल में बारह गुरु किए थे। फिर भी उन्हें सच्चे परमात्मा पथ का राही कोई नहीं बना सका। साठ साल की आयु में दादा लेखराज के जीवन में एक महान् परिवर्तन आया। एक दिन जब वे वाराणसी में अपने मित्र के यहां आए थे तब उन्हें इस कलियुगी दुनिया के महाविनाशऔर नई दुनिया की स्थापना का साक्षात्कार हुआ। उस दौरान उनके तन में ईश्वरीय शक्ति की उपस्थिति थी। उस ईश्वरीय शक्ति ने दादा के अतीत और आदिकाल के संस्मरण सुनाए तथा कहा कि अब इस दुनिया को नई दुनिया बनाने का महान कार्य तुम्हें करना है। दादा को यह बात बिल्कुल समझ में नहीं आई और वे इसे अपने गुरुओं की करामात समझ उनसे इनके बारे में पूछने गए। सभी गुरु समझ गए थे कि यह तो ईश्वरीय सत्ता का ही कार्य है। ईश्वरीय सत्ता ने उनकी उलझनों को समाप्त कर दिया और अपना परिचय सर्व आत्माओं के पिता कल्याणकारी परमात्मा शिव के रूप में दिया। इस महान कार्य के लिए परमात्मा ने उन्हें उनका नाम दादा लेखराज से प्रजापिताब्रह्मा के नाम से नामकरण किया और माताओं-बहनों को ईश्वरीय शक्ति के रूप में आगे करने का आदेश दिया। इस आज्ञानुसार दादा लेखराज ने माताओं-बहनों के कोमल स्वभाव को जान उन्हें ईश्वरीय शक्ति के रूप में प्रत्यक्ष करने के लिए उन्हें वैभवों से दूर रहकर सभी भौतिक विद्याओं से परे राजयोग की शिक्षा के माध्यम से परमात्मशक्ति को अपनाकर अपने अंदर छिपी शक्तियों को प्रत्यक्ष करने को कहा। सभी धर्म और आध्यात्मिक लोगों की भावनाओं का सम्मान करते हुए दादा लेखराज ने उन्हें धर्म, अध्यात्म और सत्य तपस्या से अवगत कराकर उन्हें समाज में पैर जमा चुकी आसुरी शक्तियों से निकाल दैवी शक्तियों के लिए प्रेरित किया। यहीं से स्व-परिवर्तन से विश्व परिवर्तन के एक छोटे से कारवां का शुभारंभ हुआ। राजयोग को धार्मिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक विधि में परिभाषित कर दादा ने सर्व मनुष्यात्माओंके लिए सहज उपलब्ध कराया। प्रजापिताब्रह्मा बाबा आज साकार में नहीं हैं, परंतु उनकी सूक्ष्म दृष्टि और शक्ति आज भी लाखों आत्माओं को दैवी गुणों से सजाने का महान कार्य कर रही है। दादा लेखराज ने हीरे जवाहरात के व्यापार को छोड मनुष्यों के अन्दर छिपे हीरेतुल्यगुणों को परखने तथा उन्हें पुनस्र्थापितकरने के लिए अपना सब कुछ ईश्वरीय कार्य में समर्पण कर दिया। इस संस्था की स्थापना सिंध (जो अब पाकिस्तान में है) में ओम मण्डली के रूप में स्थापित हुई। दादा लेखराज को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पडा। अनेक लांछन और आरोप लगाए गए परंतु विजय सत्य की हुई। भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद ईश्वरीय शक्ति के आदेशानुसार ब्रह्मा बाबा ने ऋषि मुनियों की तपोभूमि तथा नक्काशी में दुनिया भर में मशहूर दिलवाडामंदिर और नक्की झील के समीप तपस्या के लिए चयन किया, जिसका नाम पाण्डव भवन रखा और यहीं से प्रजापिताब्रह्माकुमारीईश्वरीय विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। धीरे-धीरे ये कारवां बढता गया। बाबा का उद्देश्य एक ऐसी दुनिया का निर्माण करना था, जहां दु:ख और दरिद्रता का नामोनिशान न हो। इसके लिए वे प्रकृति और पर्यावरण का ध्यान रख सतोप्रधानबनाने का प्रयास करते रहे। श्वेत वस्त्रों के बीच सजी बाल ब्रह्मचारिणी बहनों को उन्होंने इस संस्था में आगे रख भारत माता और वंदेमातरम् बन भारत और विश्व का उद्धार करने का अनुगामी बनाया और बाबा स्वयं एक निमित्त बन ईश्वरीय सेवा में लगे रहे और पूरे विश्व में अपना प्रभुत्व स्थापित किया। इस ईश्वरीय कार्य में सर्व मनुष्यात्माओंकी सेवा करते हुए बाबा ने तपस्या की ज्वाला से अपने आपको सोलह कला संपूर्ण और निर्विकारीबनाया। 18जनवरी, 1969को अपने नश्वर शरीर का त्याग किया। परंतु बाबा द्वारा जो आध्यात्मिक शक्ति का बीज बोया गया वो आज विशाल रूप ले लिया है। बाबा आज भी सूक्ष्म रूप से ईश्वरीय शक्ति से इस आध्यात्मिक क्रांति में सम्मिलित लोगों को सजा रहे हैं। आज पूरे विश्व के 130देशों में यह संस्था वटवृक्षका रूप ले चुकी है और लाखों लोग अपने जीवन को दैवी गुणों से सजाकर हीरेतुल्यबना रहे हैं।

स्वामी रामानन्द

स्वामी रामानन्द का जन्म 1299ई. में माघकृष्णसप्तमी को प्रयाग में हुआ था। इनके पिता का नाम पुण्यसदनऔर माता का नाम सुशीला देवी था। इनका बाल्यकाल प्रयाग में बीता। यज्ञोपवीत संस्कार के उपरान्त वे प्रयाग से काशी चले आए और गंगा के किनारे पंचगंगाघाट पर स्थायी रूप से निवास करने लगे। इनके गुरु स्वामी राघवानन्द थे जो रामानुज (अचारी) संप्रदाय के ख्यातिलब्ध संत थे। स्वामी राघवानन्द हिन्दी भाषा में भक्तिपरककाव्य रचना करते थे। स्वामी रामानन्द को रामभक्तिगुरुपरंपरासे मिली। हिंदी भाषा में लेखन की प्रेरणा उन्हें गुरुकृपासे प्राप्त हुई। पंचगंगाघाटपर रहते हुए स्वामी रामानुज ने रामभक्तिकी साधना के साथ-साथ उसका प्रचार और प्रसार भी किया। स्वामी रामानन्द ने जिस भक्ति-धारा का प्रवर्तन किया, वह रामानुजीपरंपरा से कई दृष्टियोंसे भिन्न थी। रामानुजीसंप्रदाय में इष्टदेव के रूप में लक्ष्मीनारायण की पूजा होती है। स्वामी रामानन्द ने लक्ष्मीनारायण के स्थान पर सीता और राम को इष्टदेव के आसन पर प्रतिष्ठित किया। नए इष्टदेव के साथ ही स्वामी रामानन्द ने रामानुजीसंप्रदाय से अलग एक षडक्षरमंत्र की रचना की। यह मंत्र है- रांरामायनम:। इष्टदेव और षडक्षरमंत्र के अतिरिक्त स्वामी रामानन्द ने इष्टोपासनापद्धतिमें भी परिवर्तन किया। स्वामी रामानन्द ने रामानुजीतिलक से भिन्न नए ऊ‌र्ध्वपुण्डतिलक की अभिरचनाकी। इन भिन्नताओंके कारण स्वामी रामानन्द द्वारा प्रवर्तित भक्तिधाराको रामानुजीसंप्रदाय से भिन्न मान्यता मिलने लगी। रामानुजीऔर रामानन्दी संप्रदाय क्रमश:अचारीऔर रामावत नाम से जाने जाने लगे। रामानुजीतिलक की भांति रामानन्दी तिलक भी ललाट के अतिरिक्त देह के ग्यारह अन्य भागों पर लगाया जाता है। स्वामी रामानन्द ने जिस तिलक की अभिरचनाकी उसे रक्तश्रीकहा जाता है। कालचक्र में रक्तश्रीके अतिरिक्त इस संप्रदाय में तीन और तिलकोंकी अभिरचनाहुई। इन तिलकोंके नाम हैं, श्वेतश्री(लश्करी), गोलश्री(बेदीवाले) और लुप्तश्री(चतुर्भुजी)। इष्टदेव, मंत्र, पूजापद्धतिएवं तिलक इन चारों विंदुओंके अतिरिक्त स्वामी रामानन्द ने स्वप्रवर्तितरामावत संप्रदाय में एक और नया तत्त्‍‌व जोडा। उन्होंने रामभक्तिके भवन का द्वार मानव मात्र के लिए खोल दिया। जिस किसी भी व्यक्ति की निष्ठा राम में हो, वह रामभक्त है, चाहे वह द्विज हो अथवा शूद्र, हिंदू हो अथवा हिंदूतर।वैष्णव भक्ति भवन के उन्मुक्त द्वार से रामावत संप्रदाय में बहुत से द्विजेतरऔर हिंदूतरभक्तों का प्रवेश हुआ। स्वामी रामानन्द की मान्यता थी कि रामभक्तिपर मानवमात्र का अधिकार है, क्योंकि भगवान् किसी एक के नहीं, सबके हैं-सर्वे प्रपत्तिरधिकारिणोमता:।ज्ञातव्य है कि रामानुजीसंप्रदाय में मात्र द्विजाति(ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) को ही भगवद्भक्तिका अधिकार प्राप्त है। स्वामी रामानन्द ने रामभक्तिपर मानवमात्र का अधिकार मानकर एक बडा साहसी और क्रान्तिकारी कार्य किया था। इसके लिए उनका बडा विरोध भी हुआ। स्वामी रामानन्द का व्यक्तित्व क्रान्तिदर्शी,क्रान्तिधर्मीऔर क्रान्तिकर्मीथा। उनकी क्रान्तिप्रियतामात्र रामभक्तितक ही सीमित नहीं थी। भाषा के क्षेत्र में भी उन्होंने क्रान्ति का बीजारोपण किया। अभी तक धर्माचार्य लेखन-भाषण सारा कुछ देवभाषा संस्कृत में ही करते थे। मातृभाषा होते हुए भी हिंदी उपेक्षत-सीथी। ऐसे परिवेश में स्वामी रामानन्द ने हिंदी को मान्यता देकर अपनी क्रान्तिप्रियताका परिचय दिया। आगे चलकर गोस्वामी तुलसीदास ने स्वामी रामानन्द की भाषा विषयक इसी क्रान्ति प्रियताका अनुसरण करके रामचरितमानस जैसे अद्भुत ग्रंथ का प्रणयन हिंदी भाषा में किया। ऐसा माना जाता है कि स्वामी रामानन्द विभिन्न परिवेशों के बीच एक सेतु की भूमिका का निर्वाह करते थे। वे नर और नारायण के बीच एक सेतु थे; शूद्र और ब्राह्मण के बीच एक सेतु थे; हिन्दू और हिंदूतरके बीच एक सेतु थे; देवभाषा (संस्कृत) और लोकभाषा(हिन्दी) के बीच एक सेतु थे। स्वामी रामानन्द ने कुल सात ग्रंथों की रचना की, दो संस्कृत में और पांच हिंदी में। उनके द्वारा रचित पुस्तकों की सूची इस प्रकार है:
(1) वैष्णवमताब्जभास्कर: (संस्कृत),
(2) श्रीरामार्चनपद्धति:(संस्कृत), (3) रामरक्षास्तोत्र(हिंदी), (4) सिद्धान्तपटल(हिंदी), (5) ज्ञानलीला(हिंदी), (6) ज्ञानतिलक(हिन्दी),
(7) योगचिन्तामणि(हिंदी)।
ऐसा माना जाता है कि लगभग एक सौ ग्यारह वर्ष की दीर्घायु में स्वामी रामानन्द ने भगवत्सायुज्यवरणकिया। जीवन के अंतिम दिनों में वे काशी से अयोध्या चले गए। वहां वे एक गुफामें प्रवास करने लगे। एक दिन प्रात:काल गुफासे शंख ध्वनि सुनाई पडी। भक्तों ने गुफामें प्रवेश किया। वहां न स्वामी जी का देहशेषऔर न शंख।
वहां मात्र पूजासामग्रीऔर उनकी चरणपादुका। भक्तगण गुफासे चरणपादुका काशी ले आए और यहां उसे पंचगंगाघाटपर स्थापित कर दिया। जिस स्थान पर चरणपादुका की स्थापना हुई, उसे श्रीमठकहा जाता है। श्रीमठपर एक नए भवन का निर्माण सन् 1983ई. में किया गया।

संत श्री रामकृष्ण परमहंस

मानवीय मूल्यों के पोषक संत रामकृष्ण परमहंस का जन्म 18फरवरी,1836 को बंगाल प्रांत स्थित ग्राम कामारपुकुरमें हुआ था। इनके बचपन का नाम गदाधर था। इनकी बालसुलभ सरलता और मंत्रमुग्ध मुस्कान से हर कोई सम्मोहित हो जाता था। सात वर्ष की अल्पायु में ही गदाधर के सर से पिता का साया उठ गया। ऐसी विपरीत परिस्थिति में पूरे परिवार का भरण-पोषण कठिन होता चला गया। आर्थिक कठिनाइयां आईं। बालक गदाधर का साहस कम नहीं हुआ। इनके बडे भाई रामकुमार चट्टोपाध्यायकलकत्ता(कोलकाता) में एक पाठशाला के संचालक थे। वे गदाधर को अपने साथ कोलकाताले गए। रामकृष्ण का अन्तर्मन अत्यंत निश्छल, सहज और विनयशील था। संकीर्णताओं से वह बहुत दूर थे। अपने कार्यो मेंलगे रहते थे। सतत प्रयास के बावजूद रामकृष्ण का मन अध्ययन-अध्यापन में नहीं लग पाया। कलकत्ता के पास दक्षिणेश्वरस्थित काली माता के मन्दिर में अग्रज रामकुमार ने पुरोहित का दायित्व प्रदान किया, रामकृष्ण इसमें नहीं रम पाए। कालान्तर में बडे भाई भी चल बसे। अन्दर से मन के न रहते हुए भी रामकृष्ण मंदिर की पूजा एवं अर्चना करने लगे। रामकृष्ण मां काली के आराधकहो गए। बीस वर्ष की अवस्था में अनवरत साधना करते-करते माता की कृपा से इन्हें परम दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ। इनके प्रिय शिष्य विवेकानन्द ने एक बार इनसे पूछा-महाशय! क्या आपने ईश्वर को देखा है? महान साधक रामकृष्ण ने उत्तर दिया-हां देखा है, जिस प्रकार तुम्हें देख रहा हूं, ठीक उसी प्रकार, बल्कि उससे कहीं अधिक स्पष्टता से। वे स्वयं की अनुभूति से ईश्वर के अस्तित्व का विश्वास दिलाते थे आध्यात्मिक सत्य, ज्ञान के प्रखर तेज से भक्ति ज्ञान के रामकृष्ण पथ-प्रदर्शक थे। काली की भक्ति में अवगाहन करके वे भक्तों को मानवता का पाठ पढाते थे। रामकृष्ण के शिष्य नाग महाशय ने गंगातटपर जब दो लोगों को रामकृष्ण को गाली देते सुना तो क्रोधित हुए किंतु प्रभु से प्रार्थना की कि उनके मन में श्रद्धा जगाकर रामकृष्ण के भक्त बना दें। सच्ची भक्ति के कारण दोनों शाम को रामकृष्ण के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगे। रामकृष्ण ने उन्हें क्षमा कर दिया। एक दिन परमहंस ने आंवला मांगा। आंवले का मौसम नहीं था। नाग महाशय ढूंढते-ढूंढते जंगल में एक वृक्ष के नीचे ताजा आंवला रखा पा गये, रामकृष्ण को दिया। रामकृष्ण बोले-मुझे पता था-तू ही लेकर आएगा। तेरा विश्वास सच्चा है। रामकृष्ण परमहंस जीवन के अंतिम दिनों में समाधि की स्थिति में रहने लगे। अत:तन से शिथिल होने लगे। शिष्यों द्वारा स्वास्थ्य पर ध्यान देने की प्रार्थना पर अज्ञानता जानकर हंस देते थे। इनके शिष्य इन्हें ठाकुर नाम दिए थे। रामकृष्ण के परमप्रिय शिष्य विवेकानन्द कुछ समय हिमालय के किसी एकान्त स्थान पर तपस्या करना चाहते थे। यही आज्ञा लेने जब वे गुरु के पास गये तो रामकृष्ण ने कहा-वत्स हमारे आसपास के क्षेत्र के लोग भूख से तडप रहे हैं। चारों ओर अज्ञान का अंधेरा छाया है। यहां लोग रोते-चिल्लाते रहें और तुम हिमालय की किसी गुफामें समाधि के आनन्द में निमग्न रहो क्या तुम्हारी आत्मा स्वीकारेगी। इससे विवेकानन्द दरिद्र नारायण की सेवा में लग गये। रामकृष्ण महान योगी, उच्चकोटि के साधक व विचारक थे। सेवा पथ को ईश्वरीय, प्रशस्त मानकर अनेकतामें एकता का दर्शन करते थे। सेवा से समाज की सुरक्षा चाहते थे। गले में सूजन को जब डाक्टरों ने कैंसर बताकर समाधि लेने और वार्तालाप से मना किया तब भी वे मुस्कराये। चिकित्सा कराने से रोकने पर भी विवेकानन्द इलाज कराते रहे। विवेकानन्द ने कहा काली मां से रोग मुक्ति के लिए आप कह दें। परमहंस ने कहा इस तन पर मां का अधिकार है, मैं क्या कहूं, जो वह करेगी मेरे लिए अच्छा ही करेगी। मानवता का उन्होंने मंत्र लुटाया। उनकी भौतिक काया 15अगस्त 1886को पंचतत्व में मिल गई।