मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

समतामूलक समाज के पक्षधर गुरु गोविंद सिंह

सिखों के दशम गुरु, गुरु गोविंद सिंह का बहुआयामी व्यक्तित्व इतिहास-पृष्ठों में अमरत्व प्राप्त कर चुका है। खालसा-पंथ की स्थापना के द्वारा न केवल उन्होंने धर्म, संस्कृति व मानवता की रक्षा की,बल्कि उन्होंने सिखों को वीरता का प्रतीक बना दिया। इसके पूर्व सिख दो पाटों के बीच पीस रहे थे। मुगल सुल्तानों और पहाडी राजाओं ने उनकी नींद उडा दी थी। खालसा के सिंहों ने जब आक्रामक मुद्रा अपनाई तो विरोधी भय से अपने बिलों में घुसने लगे। गुरु स्वयं वीरता और साहस के साक्षात स्वरूप थे, अत:वे अपने अनुयायियों को भी शौर्य और साहस का पाठ पढाने में सफल हुए। गोविंद सिंह पटना में बीताए अपने बाल्यकाल में ही तीरंदाजी, घुडसवारी एवं तलवार-संचालन में रुचि लेने लगे थे। नौ वर्ष की उम्र में जब पाटलिपुत्र को छोडकर आनंदपुर पहुंचे तो अपनी वीरता को परवान चढाने का उन्हें और अवसर उपलब्ध हुआ। गुरु-गद्दी संभालते ही उन्हें शत्रुओं से घिरे होने का आभास हो गया और इस आभास और संघर्ष ने उनसे अन्तत:खालसा की नींव डलवाई। इसका एक-एक सैनिक गुरु के साहस और शौर्य से प्रेरित होकर अदम्य योद्धा बन आया। संतुष्ट गुरु ने यों ही नहीं कहा-
सवा लाख से एक लडाऊं चिडियों से मैं बाज तुडाऊं। तभी गोविंद सिंह नाम कहाऊं॥
गुरु समतामूलक समाज के पक्षधर थे। उन्होंने प्रचलित वर्ण-व्यवस्था, जाति-पाति का विरोध करते हुए सिख धर्म के द्वार को सभी लोगों के लिए उद्घाटित कर दिया था। दीनहीन,अछूत-छूत सभी खालसा के समर्पित सैनिक थे। महान एवं साहसी गुरु से प्रशिक्षण पा कर सैनिक अब नर से नरसिंह बन आए थे। ऐसे युगान्तरकारीपुरुष इतिहास में कम ही मिलते हैं। शत्रुओं के छिट-फुटआक्रमणों का विध्वंस तो खालसा-वीरों ने किया ही। गुरु और उनके सैनिकों की असल परीक्षा तब हुई जब 26जून, 1700को मुगलों और पहाडी राजाओं की तीस हजार की सम्मिलित सेना ने आनंदपुर की ओर कूच कर दिया। गुरु मुश्किल से 6-7हजार खालसा सैनिक एकत्रित कर पाए। इन सभी का उन्होंने अपने सफेद घोडे पर सवार होकर नेतृत्व किया और उनमें अपने ओजस्वी भाषण से ऐसा पराक्रम और साहस भरा कि मुट्ठी भर सिख सेना शत्रुओं की अपार सेना से जा भिडी। उत्साहित वीर अपने गुरु की तलवार की बिजली सी चमक के कमाल से प्रभावित हो शत्रुओं की दीवार को भेद कर अन्दर तक पहुंच गए। एक-एक सिख-सैनिक ने दस-दस शत्रुओं के सिर कलम किए। यह सचमुच सवा लाख से एक के लडने का दृश्य था। सिख-सिंह मुगल सैनिकों को धूल चटा रहे थे। शत्रुओं के रक्त की नदी प्रवाहित हो गई। स्वयं गुरु गोविन्द सिंह ने शत्रु-पक्ष के मुगल-सरदार पाइन्दाखां की गर्दन अपने बाण से बेध कर उसे यमलोक पहुंचा दिया। शत्रु-सेना के पैर उखड गए, वह भाग खडी हुई। गुरु ने पीठ पर प्रहार करने से मना किया और सिखों की विजय-वाहिनी अपने किले में वापस आई।
गुरु धर्म के भारी पक्षधर थे और उन्होंने अपनी आत्मकथा विचित्र नाटक में स्पष्ट किया है- हम इहकाज जगत मोंआए। धरम हेतु गुरुदेव पठाए॥जहां-तहां तुम धरम विथारो॥दुष्ट देखियतपकरिपछारो॥
गुरु को पता था कि बिना बल के धर्म की रक्षा असंभव है। जब उनके चारों ओर विधर्मी उन पर घात लगाए बैठे थे, तो वह अपनी ही रक्षा शस्त्रास्त्र के बिना नहीं कर सकते थे। धर्म की रक्षा वे कैसे करते? अत:उन्होंने धर्म से कम महत्व शस्त्र को नहीं दिया। इसका सबसे बडा प्रमाण यह है कि उन्होंने सिखों को एक बहादुर कौम बना दिया और उनके लिए पांच ककारों को अनिवार्य कर दिया।
गुरु की वीरता की गाथा तो अप्रमेय है ही। धर्म की रक्षा में अपने और अपने परिवार तक की बलि चढा देने का अप्रतिम उदाहरण भी उन्होंने रखा। कश्मीर में मुगलों के उत्पात से रक्षा के लिए जब शिष्टमंडल पहुंचा तो गोविंद सिंह ने ही अपने पिता गुरु तेगबहादुरको वहां जाने को प्रेरित किया और वह दिल्ली के चांदनी चौक पर ही शत्रुओं द्वारा शहीद कर दिए गए। गुरु के दोनों लडके मुगलों द्वारा दीवार में चुनवा दिए गए। मानवता की रक्षा के लिए इतना बडा त्याग और बलिदान बिरले ही देखने को मिलता है।

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